देश पर विलुप्त होती झेत्रीय भाषा – ॲड. आकाश सपेलकर अध्यक्ष आल इंडिया रिपोर्टर अस्सोसिशन

नागपूर :-भारत सहित दुनिया भर में क्षेत्रीय भाषाएं बहुत तेज़ी से लुप्त होती जा रही हैं। इससे लोकतंत्र पर ख़तरा मंडरा रहा है। कारण भाषाओं की विविधता और उससे जुड़े समाज और पर्यावरण की विविधता से लोग सशक्त होते हैं। पर जब उनकी भाषा ही छिन जाती है तो उनके संसाधन, उनकी पहचान और उनकी लोकतांत्रिक ताक़त भी छिन जाती है। भारत के पिछले सत्तर हज़ार वर्ष के इतिहास में जब-जब हमारी भाषा बदली तब-तब भारत का नवनिर्माण हुआ। नई संस्कृति, नया धर्म, नये रीति-रिवाज और नया राजनैतिक ढांचा बनता रहा और कुछ सदियों के बाद बिगड़ता रहा है। पुरानी कहावत है कि ‘कोस-कोस पर पानी बदले, चार कोस पर वाणी’ इस कहावत का अर्थ है कि लगभग हर डेढ़ किलोमीटर पर पानी के स्वाद में बदलाव आ जाता है और लगभग साढ़े छह किलोमीटर पर भाषा बदल जाती है। भारत का कुल क्षेत्रफल बत्तीस लाख सत्तासी हज़ार दो सौ तिरसठ वर्ग कि. मी. है। इस हिसाब से भारत में लगभग पांच लाख प्रकार की बोलियां बोली जातीं थीं। जो 2011 के भाषाई सर्वेक्षण में घटकर लगभग 1369 ही रह गई हैं। यही हाल रहा तो हमारी भाषाएं घट कर 2031 तक 500, 2041 तक 200 और 2051 तक केवल 100 रह जाएंगी। इससे हमारे जीवन पर क्या संकट आने वाला है I

इन आंकड़ों से भाषाई विविधता का पता चलता है। आप अपने इर्द-गिर्द ही अगर देखें तो आप पायेंगे कि आपके रिश्तेदार जो भिन्न-भिन्न शहरों, क़स्बों या गांवों से आते हैं उनकी भाषा में ही समानता नहीं होती। उदाहरण के तौर पर उत्तर भारत का लोकप्रिय व्यंजन परांठा कितने नामों से जाना जाता है? कोई इसे ‘परौठा’ कहता है, कोई ‘परामटा’, कोई ‘परौंठी’, कोई ‘परोटा’ आदि। आप कह सकते हैं कि क्या फ़र्क़ पड़ता है, कुछ भी कह लो। जिसका स्थानीय लोग प्रयोग करते हैं, उसका एक सांस्कृतिक संदर्भ होता है। उसकी उत्पत्ति कैसे हुई और उसको किस संदर्भ में प्रयोग में लाया जा सकता है। हर स्थानीय भाषा अपने परिवेश से जुड़ी होती है। मसलन उस इलाक़े के पेड़-पौधों, फूल-पत्तियों, फल-सब्ज़ियों, नदी, नालों और पोखरों, पशु-पक्षियों, त्यौहारों-पर्वों, आभूषणों, परिधानों, ऋतुओं, फसलों, देवी-देवताओं, लोक कथाओं के समावेश से उस इलाक़े की भाषा पनपती है। जिसे केवल उस सांस्कृतिक परिवेश में ही समझा जा सकता है। ब्रज में एक शब्द आम प्रचलन में है, ‘अर्राना’। आप इसका क्या अर्थ समझे? इसका प्रयोग उस परिस्थिति के लिए होता हैं जब कोई व्यक्ति या तो जबरन आपके घर में प्रवेश करे या पारस्परिक वार्ता में आप पर हावी होने की कोशिश करे।

भारत के समुद्र तटीय क्षेत्रों को आज तक सभी सरकारों ने विवेकहीनता का परिचय देते हुए व्यावसायिक उपयोग के लिए खोल दिया। नतीजा यह हुआ कि वहां सदियों से रहने वाले मछुआरों की बस्तियां उजड़ गईं। उनकी जगह होटलों और व्यापारिक प्रतिष्ठानों ने ले ली। इस तरह इन मछुआरों द्वारा बोली जाने वाली 200 भाषाएं हमेशा के लिए लुप्त हो गईं। इनके साथ ही इन भाषाओं के लोकगीत और मुहावरे भी ग़ायब हो गये। जिनमें सदियों से संचित अनुभवों का व्यावहारिक ज्ञान छिपा था। अपनी जड़ों से उजड़ कर काम की तलाश में ये मछुआरे देश के विभिन्न अंचलों में फैल गए और अब मज़दूरी करके पेट पाल रहे हैं।

जब उनका समुदाय ही बिखर गया तो वे अपनी भाषा में किससे बात करेंगे? अगर समुद्र तट पर रहते, जहां का मौसम और पर्यावरण उनके जीवन का अभिन्न अंग था तो वे संगठित भी रहते। संगठित रहते तो अपने हक़ के लिए लड़ते भी और राजनैतिक प्रक्रिया में उनकी भूमिका भी होती। पर आज वे असंगठित हो कर न सिर्फ़ अपने जीविका के आधार को खो बैठे, बल्कि अपनी संस्कृति, अपनी पहचान, अपनी दिनचर्या, अपना मनोरंजन और अपना राजनैतिक अधिकार भी खो बैठे। आज ये उन मछुआरों के साथ हुआ, यही आज देश के वनवासियों के साथ भी हो रहा है और कल ये हम शहरी लोगों के साथ भी होने जा रहा है। क्योंकि डिजिटल मीडिया की भाषा पूरी दुनिया में एक हो गई है। हमारी भी भाषा इस बाढ़ में डूब रही है।

आप देखंगे की हम अपने बच्चों को विदेशी भाषा सीखा रहे है , अन्तराष्ट्रीय स्तर पर देखे तो यह ठीक भी है पर अपनी भाषा धरोहर को खो देना जिससे की संस्कृति विलुप्त हो ये ठीक नहीं , अपनी आज भाषा गई, कल हमारी पहचान भी चली जाएगी। क्योंकि हमें विश्व नागरिक बनने का सपना दिखाया जा रहा है। जिसके बाद हमारे लोकतांत्रिक अधिकार भी छिन जाएंगे और हम उन मछुआरों की तरह बेघर और बेदर होकर एक रोबोट की तरह ज़िंदगी जीने को मजबूर होंगे। क्या हमें ऐसी ग़ुलामी की ज़िन्दगी स्वीकार्य है? अगर नहीं तो हमें अपनी-अपनी भाषाओं को बचाने के लिए जागरूक होना होगा।

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