नागपूर :-7 साल का रितेश (बदला हुआ नाम) 4 महीने की उम्र से जंग लड़ रहा है। 4 महीने की उम्र में उसे थैलेसीमिया मेजर का पता चला। एक ऐसी बीमारी जिसमें जीवित रहने के लिए हर 3-4 सप्ताह में रक्त चढ़ाने की आवश्यकता होती है। परिवार ने अपने बालरोग विशेषज्ञ व थैलेसीमिया और सिकलसेल सेंटर नागपुर के संचालक डॉ. विंकी रुघवानी से संपर्क किया, जो कम उम्र से ही उसकी देखभाल कर रहे हैं।
बार-बार रक्त चढ़ाने से न केवल महत्वपूर्ण अंगों में अत्यधिक आयरन जमा हो जाता है, बल्कि यह रोगियों को रक्त चढ़ाने से संबंधित विभिन्न संक्रमणों के जोखिम में भी डाल देता है। ऐसा ही रितेश के जीवन में हुआ और वह एचआईवी पाया गया। रितेश परिवार का इकलौता ऐसा सदस्य हैं जो एचआईवी पॉजिटिव था। जिसका अर्थ यह हैं कि किसी समय वह दुर्भाग्य से ब्लड ट्रांसफ्यूजन के माध्यम से संक्रमण के संपर्क में आ गया था। माता-पिता के लिए यह एक बहुत बड़ा सदमा था। उसे अपने शेष जीवन में एचआईवी के लिए एंटी-रेट्रोवायरल की आवश्यकता थी और अपने प्राथमिक निदान के साथ एक गंभीर बीमारी की जटिलताओं से निपटना था। डॉ. विंकी रुघवानी ने बताया की तुरंत उस पर एंटी एचआईवी थेरेपी शुरू की गयी साथ ही साथ थैलेसिमीया बीमारी में लगनेवाली सारी दवाईयां व अन्य इलाज जारी रखा गया। डॉ. विंकी रुघवानी ने रितेश को उचित आयरन चिलेशन और नियमित फॉलोअप पर रखा।
डॉ. रुघवानी ने आगे कहा कि बोन मैरो ट्रांसप्लांटेशन (बीएमटी) इस रक्त विकार के लिए एकमात्र स्थायी उपचार हैं। जिसके लिए एक स्टेम सेल डोनर की आवश्यकता होती है। सिंगल चाइल्ड होने के कारण एचएलए मैच होने की संभावना कम ही दिख रही थी। कोकिलाबेन धीरूभाई अंबानी हॉस्पिटल के सहयोग से थैलेसीमिया एंड सिकलसेल सेंटर नागपुर में आयोजित कैंप में फ्री एचएलए मैचिंग की गई। आमतौर पर लगभग 30% सगे भाई-बहन में एचएलए मैचिंग होने की संभावना होती हैं। यह केवल 1% से भी कम मामलों में होता है, ज़ब बच्चे का एचएलए मैचिंग माता-पिता से पूर्ण रूप से मेल खाता हो। यह सुखद बात थी की रितेश के मामले में इसके पिता के साथ एचएलए मैच शत प्रतिशत हो गया ऐसा डॉ. विंकी रुघवानी ने बताया। इसलिए मरीज को मुंबई के कोकिलाबेन धीरूभाई अंबानी अस्पताल में हेमेटोलॉजिस्ट और बोन मैरो ट्रांसप्लांट विशेषज्ञ डॉ. शांतनु सेन के पास भेजा गया।
डॉ. विंकी रुघवानी ने बताया कि स्टेम सेल ट्रांसप्लांट के लिए कंडीशनिंग कीमोथेरेपी व 7-10 दिनों के बाद स्टेम सेल इन्फ्यूजन देना होता है और फिर ट्रांसप्लांट के बाद डेढ़ साल तक मरीज को इम्यूनोसप्रेसेंट दवाएं देना जारी रखना पड़ता है। इसका मतलब यह था कि यह एक बहुत ही उच्च जोखिम वाला प्रत्यारोपण था जिसमें एचआईवी वायरल लोड और बाद में गंभीर इम्युनोकॉम्प्रोमाइज्ड स्थिति के कारण होने वाले संक्रमणों की प्रबल संभावना होती हैं।
दुनिया में बहुत कम एचआईवी पॉजिटिव रोगियों का स्टेम सेल ट्रांसप्लांट हुआ है। 4 जनवरी 2023 को उनका डॉ. शांतनु सेन द्वारा बोन मैरो ट्रांसप्लांटेशन किया गया। उनका पोस्ट-ट्रांसप्लांट कोर्स सफल रहा। फिलहाल उनकी हालत स्थिर है और उन्हें अस्पताल से छुट्टी मिल गई है। डॉ विंकी रूघवानी ने कहा कि कोल इंडिया और अन्य परोपकारी संगठनों की मदद से पूरी प्रक्रिया नि:शुल्क की गई।
उन्होंने बताया कि भले ही हमने रितेश को थैलेसीमिया से तो ठीक कर दिया, लेकिन उसे एचआईवी के इलाज की जरूरत पड़ती रहेगी। यह वास्तव में एक बहुत ही अनूठा मामला है, जो फिर से दिखाता है कि एचआईवी संक्रमण के बावजूद, हमारे लिए उचित देखभाल के साथ आगे बढ़ना और अपने मरीजों का इलाज करना और ठीक करना संभव है। थैलेसीमिया के बच्चे को ठीक करने में हम माता-पिता के साथ उनकी खुशी में शामिल हैं।
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