भारतीय राजनीति में हिंदुत्व प्रेरित राष्ट्रवाद एक प्रमुख विचारधारा बन चुकी है, जिसका प्रभाव हर स्तर पर दिख रहा है। भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नेतृत्व में यह विचारधारा देश की राजनीति का केंद्रबिंदु बन गई है। ऐसे में कांग्रेस जैसी परंपरागत धर्मनिरपेक्ष राजनीति करने वाली पार्टी के सामने एक कठिन चुनौती है—क्या वह अपने मूल सिद्धांतों को बरकरार रखते हुए अपनी राजनीतिक प्रासंगिकता बनाए रख सकती है, या उसे भी हिंदुत्व प्रेरित राष्ट्रवाद की ओर झुकना पड़ेगा?
मोदी सरकार के पिछले दो कार्यकालों में हिंदुत्व प्रेरित राष्ट्रवाद केवल एक वैचारिक आंदोलन नहीं रहा, बल्कि यह एक राजनीतिक वास्तविकता बन चुका है। इसके पीछे कुछ मुख्य कारण हैं— राम मंदिर निर्माण, अनुच्छेद 370 का हटाया जाना, नागरिकता संशोधन अधिनियम (CAA) जैसे मुद्दों ने बहुसंख्यक हिंदू समाज को भाजपा के करीब ला दिया है।
चीन, पाकिस्तान जैसे देशों के खिलाफ सख्त रुख अपनाने और भारतीय सेना की उपलब्धियों को प्रमुखता से प्रस्तुत करने से राष्ट्रवाद को बढ़ावा मिला है। उसी तरह ‘संस्कृतनिष्ठ भारत’ की ओर बढ़ते कदम, हिंदी भाषा को बढ़ावा, और प्राचीन भारतीय परंपराओं पर जोर देकर एक नया सांस्कृतिक राष्ट्रवाद उभर रहा है।
कांग्रेस की कमजोरी : कांग्रेस के अंदर नेतृत्व संकट, स्पष्ट वैचारिक दिशा की कमी और संगठनात्मक कमजोरी के कारण भाजपा को खुला मैदान मिल गया है।
हाल में राहुल गांधी गुजरात के दो दिवसीय दौरे पर थे। उन्होंने अहमदाबाद में प्रमुख नेताओं के साथ बैठक में अपने नेताओं को दूसरी पार्टी यानी भाजपा के लिए काम करने का आरोप लगाने से लेकर उन्हें बारात के घोड़े तक की संज्ञा दे दी। उन्होंने भाजपा से मिलकर काम करने वाले 30-40 कांग्रेस नेताओं को निकालने की भी बात कही।
गुस्से या खीझ में वक्तव्य देने का केवल गुजरात नहीं, पूरे देश के आम कांग्रेसी कार्यकर्ताओं के अंदर संदेश सकारात्मक नहीं गया होगा। राहुल गांधी और उनके रणनीतिकार कह सकते हैं कि कांग्रेस को जगह-जगह चुनावी जीत दिलाना और राष्ट्रीय स्तर पर भी सत्ता में लाना है तो भितरघात करने वालों तथा पार्टी के विचार और लक्ष्य के अनुरूप न काम करने वालों को बाहर करना पड़ेगा।
कांग्रेस की राजनीति ऐतिहासिक रूप से बहुलतावादी और धर्मनिरपेक्ष रही है, लेकिन आज के माहौल में उसे इस रुख को फिर से परिभाषित करना पड़ रहा है।
कांग्रेस के कुछ नेता, जैसे राहुल गांधी और प्रियंका गांधी, हाल के वर्षों में मंदिर यात्राएँ कर रहे हैं और अपनी हिंदू पहचान को उजागर कर रहे हैं। 2017 के गुजरात विधानसभा चुनाव में राहुल गांधी ने खुद को “जनेऊधारी हिंदू” बताया था। मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में कांग्रेस सरकारों ने गौशालाओं और राम वनगमन पथ जैसे धार्मिक परियोजनाओं को समर्थन दिया।
एक धड़ा ऐसा भी है जो मानता है कि कांग्रेस को अपनी धर्मनिरपेक्ष छवि को और मजबूत करना चाहिए और अल्पसंख्यकों के साथ-साथ दलितों और पिछड़ों की आवाज को बुलंद करना चाहिए। हालांकि, इस नीति में सफलता संदिग्ध है क्योंकि भाजपा कांग्रेस पर तुष्टीकरण का आरोप लगाकर हिंदू मतदाताओं को और अधिक संगठित कर सकती है।
काफी समय से कांग्रेस में वैचारिक अंतर्द्वंद्व जारी है जो समय-समय उभरता रहता है। केरल में तिरुअनंतपुरम से सांसद और वरिष्ठ नेता शशि थरूर का मामला सामने है। चूंकि थरूर बड़े नेता हैं, इसलिए उनका मामला देशव्यापी चर्चा में आ गया। हर राज्य में ऐसे नेताओं की बड़ी संख्या है, जिन्हें इसी तरह संदेह की दृष्टि से देखा जा रहा है। जिस पार्टी के अंदर एक-दूसरे को लेकर संदेह का माहौल हो, कल्पना कर सकते हैं कि उसकी दशा क्या होगी।
दूसरी तरफ कांग्रेस संघ और भाजपा को गलत हिंदुत्ववादी बताते हैं। एक समय राहुल और उनके पूर्व के रणनीतिकार भी धर्मनिष्ठ होने का प्रदर्शन कर रहे थे। वह मंदिर- मंदिर जा रहे थे। उस समय राहुल को जनेऊधारी हिंदू ब्राह्मण बताया गया था। उनकी कैलास मानसरोवर की यात्रा तक हुई।
इसके पीछे रणनीति यही थी कि प्रधानमंत्री मोदी का सामना करना है तो कांग्रेस और उसके नेतृत्व को भी हिंदुत्व प्रेरित राष्ट्रवाद पर आना पड़ेगा। कांग्रेस के अनेक नेता सार्वजनिक मंचों से स्वयं को हिंदू और धर्मनिष्ठ कहने लगे थे। क्या वे भाजपा, संघ या मोदी समर्थक हो गए थे?
कांग्रेस खुद को बदलने के लिए यदि हिंदुत्व प्रेरित राष्ट्रवाद की राह पर चलती है, तो उसे कई दिक्कतों का सामना करना पड़ेगा क्योंकि भाजपा की तुलना में कांग्रेस की कमजोर हिंदुत्व छवि है। भाजपा का हिंदुत्व पूरी तरह सुसंगठित और वैचारिक रूप से परिपक्व है, जबकि कांग्रेस के लिए यह केवल एक राजनीतिक रणनीति होगी, जिससे मतदाता असमंजस में पड़ सकते हैं। यदि कांग्रेस खुलकर हिंदुत्व प्रेरित राष्ट्रवाद की ओर बढ़ेगी, तो उसका पारंपरिक मुस्लिम, दलित और पिछड़ा वोट बैंक उससे दूर हो सकता है। कांग्रेस में ही कई नेता हैं जो नरम हिंदुत्व की राजनीति के खिलाफ हैं और इसे पार्टी की मूल विचारधारा के विरुद्ध मानते हैं।
वर्तमान भारतीय राजनीति का सच यह है कि हर पार्टी में प्रकट या मौन हिंदुत्व समर्थक बढ़े हैं। कुछ नेताओं और पार्टियों का इस सच से सामना हुआ है कि किसी भी स्थिति में हिंदुत्व विरोधी दिखने से उनके जनाधार पर विपरीत असर पड़ेगा। उन्हें सार्वजनिक तौर पर स्वयं को हिंदुत्वनिष्ठ-धर्मनिष्ठ प्रदर्शित करना पड़ रहा है।
कांग्रेस के लिए हिंदुत्व प्रेरित राष्ट्रवाद की राजनीति को अपनाना एक दुधारी तलवार की तरह है। यदि वह इसे अपनाती है, तो भाजपा के सामने उसकी अलग पहचान खो सकती है; और यदि वह इससे दूर रहती है, तो हिंदू मतदाताओं के बड़े वर्ग को वापस पाना मुश्किल होगा। ऐसे में कांग्रेस को भारतीय राष्ट्रवाद की एक नई परिभाषा गढ़नी होगी, जो न केवल धर्मनिरपेक्ष हो, बल्कि सांस्कृतिक रूप से भारतीय जनमानस को भी आकर्षित करे।
– डॉ. प्रवीण डबली वरिष्ठ पत्रकार