बसपा का हाथी नहीं किसी का साथी

– मायावती की बहुजन समाज पार्टी शामिल नहीं होगी इंडिया गठबंधन में

नयी दिल्ली :-आगामी लोकसभा चुनावों में अकेले लड़ने की घोषणा करके मायावती ने विपक्षी इंडिया गठबंधनको मानो झटकाही दे दिया. हाल के दिनों में राजग की रीतियों-नीतियों को लेकर जिस तरहका उदार रवैया बसपा सुप्रीमो दिखा रही थीं, उससे भी ऐसे अंदाजे लगाए जा रहे थे. यहां तक कि पिछला लोकसभा चुनाव उन्होंने जिस सपा के साथ लड़ा था, उसके मुखिया को उन्होंने रंग बदलने वाला गिरगिट तक कह दिया. मायावती के अनुसार, जिन दलों के साथ बसपा ने पिछले चुनावों के दौरान गठबंधन किया था, उनके वोट बसपा को ट्रांसफर नहीं होते. बहरहाल, मायावती के एकला चलो के फैसले से इंडिया गठबंधन की, खासकर कांग्रेस की उम्मीद टूटी. उसे आस थी कि बसपा विपक्ष का हिस्सा बनेंगी, तो वोटों का बिखराव रोका जा सकेगा. खासकर दिल्ली की कुर्सी का रास्ता दिखाने वाले उत्तर प्रदेश में बसपा की मजबूत पकड़ रही है. जहां तक बसपा के वोट ट्रांसफर न होने वाले आरोप का सवाल है, तो अन्य विपक्षी दल मायावती के इस आरोप से सहमत नहीं हैं. बसपा ने उप्र में सपा के साथ मिलकर 1993 व 2019 में विधानसभा व लोकसभा के चुनाव लड़े थे. राजनीतिक पंडित मानते हैं कि वर्ष 1993 के यूपी विस चुनाव में सपा और बसपा में वोट ट्रांसफर हुआ था, जिसके चलते राज्य में गठबंधन की सरकार बनी थी. हालांकि, 2014 में सपा-बसपा अलग-अलग चुनाव लड़े थे, लेकिन 2019 में दोनों साथ मिलकर लड़े और इससे दोनों दलों को फायदा हुआ. यहां तक कि बसपा को ज्यादा फायदा हुआ. क्योंकि 2014 में यूपी की एक भी सीट नहीं जीत पाने वाली बसपा, 2019 में 10 लोकसभा सीट जीत गयी. हालांकि, सपा को सिर्फ पांच सीट ही मिलीं.

बहरहाल, कई सियासी पंडितों का मानना हैंकि बसपा का अलग चुनाव लड़ने का निर्णय भाजपा को लाभ पहुंचाने वाला है. यह भी राजग की लिखी पटकथा का ही हिस्सा है. यहां तक कि सपा, बसपा को भाजपा की ‘बी टीम’ तक कहा करती थी. विपक्षी दल आरोप लगाते रहे हैं कि राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों को सरकारी एजेंसियों के निशाने पर रख कर डराया जाता रहा है. यह भी तय है कि तमाम राजनीतिक दलों का अर्थशास्त्रपाक-साफ तो नहीं ही रहता है. जिसके चलते वे ईडी व अन्य वित्तीय एजेंसियों की संभावित कार्रवाई की आशंका में दबाब में आ जाती हैं. विपक्षी दल, बसपा के राजग को परोक्ष रूप से लाभ पहुंचाने की रणनीति को इसी दृष्टिसे देखते हैं. यही वजह है कि बसपा ने भी उन तीखे तल्ख नारों से परहेज किया है, जो अकसर वहसवर्णों को लेकर उछालती रही है. अब मनुवाद के नाम पर निशाने पर लेने का क्रम भी टूटा हुआ नजर आता है. कभी बसपा संस्थापक कांशीराम द्वारा बामसेफ व डीएस-4 जैसे संगठनों की स्थापना के बाद इसका राजनीतिक स्वरूप तय करने पर पार्टी के तेवरों में जो आक्रामकता होती थी, वह अब नदारद है. दरअसल, दलित-मुस्लिम गठजोड़ की वैचारिकी पर आधारित यहराजनीतिक दल कालांतर में मुस्लिमों का भरोसा भी कायम न रख सका. एक समय पार्टी की हवा इस कदर थी कि 1987 के हरिद्वार लोकसभा उपचुनाव में दिग्गज दलित नेता रामविलास पासवान तक की जमानत जब्त हो गई थी. ये बसपा-सपा गठबंधन की ताकत थी कि 1992 में अयोध्या में विवादित ढांचा गिराये जाने के बाद चली राम लहर में भाजपा को हार का सामना करना पड़ा था.

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