नागपूर :- बाबा रामदेव कई मायनों में श्रद्धेय हैं। कमोबेश इस दौर के ‘योग-पुरुष’ हैं, जिन्होंने एक कड़ी साधना को इतना आसान बना दिया है कि औसत पार्क या सभा-स्थलों पर असंख्य लोग योगासन करते देखे जा सकते हैं। नतीजतन स्वास्थ्य में भी सुधार हो रहा है। ऐसे ‘योग-साधक’ को सर्वोच्च अदालत में माफीनामा देना पड़े और न्यायिक पीठ उसे स्वीकार करने के बजाय महज ‘जुबानी जमा खर्च’ करार दे, तो शीर्ष अदालत की इस कड़ी चेतावनी को समझना बेहद जरूरी है। बाबा की कंपनी ‘पतंजलि आयुर्वेद’ एक लंबे समय से भ्रामक प्रचार करती रही है कि उसके पास ग्लूकोमा, मधुमेह, रक्तचाप, अर्थराइटिस और अस्थमा सरीखी घातक बीमारियों के स्थायी इलाज हैं। दरअसल बाबा रामदेव ही पतंजलि के उत्पादों के सार्वजनिक चेहरा हैं। विज्ञापनों में वह दावे करते देखे जा सकते हैं कि उनकी औषधियां साक्ष्य आधारित, शोधपरक और लोगों पर परखी जा चुकी हैं। इन विज्ञापनों के व्यापक प्रभाव भी होते हैं, क्योंकि करोड़ों लोगों की बाबा में आस्था है। बाबा के दावों को सच मानते हुए असंख्य लोग पतंजलि की दवाएं खरीदते और इस्तेमाल करते हैं। नतीजतन आज बाबा की कंपनियों का टर्नओवर हजारों करोड़ रुपए है। पतंजलि दवाओं के प्रचार करने के साथ-साथ बाबा रामदेव आधुनिक चिकित्सा प्रणाली ‘एलोपैथी’ के खिलाफ विष-वमन भी करते रहे हैं। बाबा ऐसा क्यों करते हैं? पतंजलि के अलावा, झंडु, बैद्यनाथ, हमदर्द, डाबर आदि प्रख्यात कंपनियां भी आयुर्वेद औषधियों का व्यापक स्तर पर उत्पादन करती हैं। उन्होंने तो कभी भी ‘एलोपैथी’ के खिलाफ जहर नहीं उगला। सर्वोच्च अदालत ने इस भ्रामक और गलत प्रचार के लिए बाबा रामदेव को मना भी किया था, लेकिन बाबा और पतंजलि समूह के प्रबंध निदेशक आचार्य बालकृष्ण देश की शीर्ष अदालत के निर्देशों का ही उल्लंघन करते रहे हैं। बाबा के आयुर्वेद बनाम एलोपैथी की यह लड़ाई, ‘इंडियन मेडिकल एसोसिएशन’ के जरिए, बीते दो सालों से सर्वोच्च अदालत के विचाराधीन है। अब बात बाबा के माफीनामे से भी आगे निकल चुकी है। मौजूदा दौर जीवन-शैली के रोगों का है, लिहाजा योग, आयुर्वेद, शरीर को विष-मुक्त करना और हर्बल थेरेपी आदि ज्यादा लोकप्रिय हैं। लोग उनके जरिए स्वास्थ्य-लाभ पा रहे हैं। देश की मोदी सरकार ने भी आयुर्वेद, होम्योपैथी, यूनानी, योग और सिद्ध आदि चिकित्सा प्रणालियों का एक ही मंत्रालय-आयुष-में विलय कर दिया है। ‘जन औषधि केंद्रों’ के जरिए जेनरिक दवाएं भी लोगों को उपलब्ध कराई जा रही हैं। बेशक स्वास्थ्य की देखभाल में इन प्राचीन चिकित्सा प्रणालियों की अपनी महत्वपूर्ण भूमिका रही है, लेकिन बाबा जैसे पैरोकार आधुनिक चिकित्सा प्रणाली ‘एलोपैथी’ को गालियां देते हुए अथवा जहर बेचने वाले करार देकर अपने ‘आयुर्वेद’ को नहीं बेच सकते।
जिस देश में नीमहकीमी और विज्ञान-विरोधी मानसिकता अनियंत्रित हो, उसमें नियामक प्रोटोकॉल से कोई भी समझौता नहीं किया जा सकता। नियामक संस्थाएं पतंजलि की औषधियों की जांच करें। यह उनका संवैधानिक अधिकार भी है। जांच की प्रक्रिया के बाद अपने निष्कर्ष देश के सामने रखें कि पतंजलि की दवाओं का सच क्या है? बाबा रामदेव देश, उसके संविधान और कानून से ऊपर नहीं हो सकते। वैश्विक महामारी कोरोना वायरस के दौरान भी बाबा ने लोगों की चिंताओं से खिलवाड़ किया और कई गलत दावे किए। उनकी भी सम्यक जांच होनी चाहिए। सर्वोच्च अदालत में सुनवाई के दौरान पतंजलि को खूब फटकार भी लगाई गई है। बाबा रामदेव ने फार्मा और मेडिकल इंडस्ट्री की गलत धारणाओं से बचने की चेतावनी देश को दी थी और यहां तक आरोप लगाए थे कि ये जहर बेच रहे हैं, लिहाजा खुद को बचाओ। बाबा ऐसी टिप्पणियां किस आधार पर कर सकते हैं? यदि शरीर के भीतर किसी रोग की गहराई तक पहुंचना है, तो उसके लिए आधुनिक चिकित्सा प्रणाली में अनेक अनुसंधान किए गए हैं। वे मानवीय जिंदगी को बचाने में सक्षम हैं। प्राचीन पद्धति
में अपनी परंपरागत खामियां भी हैं। समझना यह होगा की बीमारी की गंभीर व् आपातकाल अवस्था पर प्राचीन पद्धति कितनी कारगर है
और रामदेव बाबा जहा जन जन तक स्वदेशी का बोलबाला कर पतंजलि का प्रोडक्ट बाजार पर बेच रहे है क्या वो प्रोडक्ट इतना किफायती है की जन जन की औषधि बन जाए.