– ” यह बिल दरअसल वक्फ़ संपत्तियों को हड़पने की साज़िश है”
नागपुर :- जमाअ़त ए इस्लामी हिंद लोकसभा में पेश किए गए नए प्रस्तावित वक्फ़ संशोधन विधेयक को वक़्फ़ के संरक्षण और पारदर्शिता के नाम पर वक़्फ़ संपत्तियों को तहस-नहस करने और हड़पने की एक घिनौनी साज़िश करार देते हैं और सरकार से मांग करते हैं कि वह इस हरकत से बाज़ आए और विधेयक को वापस ले।
प्रस्तावित विधेयक में न केवल वक्फ़ की परिभाषा, मुतवल्ली की हैसियत और वक़्फ़ बोर्डों के अधिकारों के साथ छेड़छाड़ की गई है, बल्कि सेंट्रल वक्फ़ काउंसिल और वक़्फ़ बोर्ड के सदस्यों की संख्या में वृद्धि के नाम पर पहली बार इसमें गैर-मुस्लिमों को भी अनिवार्य रूप से सदस्य बनाने का प्रस्ताव लाया गया है। सेंट्रल वक़्फ़ काउंसिल में पहले एक गैर-मुस्लिम सदस्य रखा जा सकता था, लेकिन प्रस्तावित विधेयक में यह संख्या 13 तक हो सकती है, जिसमें दो सदस्य अनिवार्य होंगे। यह प्रस्ताव संविधान के अनुच्छेद 26 के विपरीत है, जो अल्पसंख्यकों को यह अधिकार देता है कि वे अपने धार्मिक और सांस्कृतिक संस्थानों की स्थापना कर सकते हैं और उन्हें अपने तरीके से चला सकते हैं।
यहां यह बात भी बताना आवश्यक है कि देश के कई राज्यों में हिंसों के धार्मिक ट्रस्टों के प्रबंधन के लिए यह अनिवार्य है कि उनके सदस्य और ज़िम्मेदार लोग हिंद धर्म का पालन करने वाले हों। इसी तरह गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी के सदस्य भी अनिवार्य रूप से सिख समुदाय से होने चाहिए। पहले वक़्फ़ बोडौं के सदस्यों का चुनाव होता था, अब यह नामांकन द्वारा होगा। इसी तरह प्रस्तावित विधेयक से वक़्फ़ बोर्ड के सीईओ के लिए मुस्लिम होने की शर्त हटा दी गई है। मौजूदा वक़्फ़ अधिनियम के तहत राज्य सरकार वक़्फ़ बोर्ड द्वारा प्रस्तावित दो व्यक्तियों में से किसी एक को नामांकित कर सकती थी, जो कि डिप्टी सेक्रेटरी के रैंक से नीचे का न हो। लेकिन अब वक़्फ़ बोर्ड के प्रस्तावित व्यक्ति की शर्त हटा दी गई है और अब डिप्टी सेक्रेटरी की शर्त को हटाकर कहा गया है कि वह जॉइंट सेक्रेटरी के रैंक से कम न हो। ये संशोधन स्पष्ट रूप से सेंट्रल वक्फ़ काउंसिल और वक़्फ़ बोर्डों के अधिकारों को कम करते हैं और सरकार की दख़लअंदाज़ी का रास्ता साफ़ करते हैं।
प्रस्तावित संशोधन विधेयक वक्फ़ संपत्तियों पर सरकारी कब्जे का भी रास्ता साफ़ करता है। अगर किसी संपत्ति पर सरकार का कब्जा हो तो इसका फैसला करने का पूरा अधिकार कलेक्टर को सौंप दिया गया है। कलेक्टर के फैसले के बाद वह राजस्व रिकॉर्ड सही करेगा और सरकार वक़्फ़ बोर्ड से कहेगी कि वह उस संपत्ति को अपने रिकॉर्ड से हटा दे।
इसी तरह अगर वक़्फ़ संपत्ति पर कोई विवाद हो तो इसे तय करने का अधिकार भी वक्फ़ बोर्ड के पास था, जो वक़्फ़ ट्रिब्यूनल के माध्यम से इसे तय करता था। अब वक्फ़ ट्रिब्यूनल का यह अधिकार भी प्रस्तावित विधेयक में कलेक्टर को सौंप दिया गया है। मौजूदा वक़्फ़ अधिनियम में किसी भी विवाद को एक साल के भीतर वक़्फ़ ट्रिब्यूनल के समक्ष लाना अनिवार्य था। इसके बाद कोई विवाद नहीं सुना जाएगा। अब यह शर्त भी हटा दी गई है। प्रस्तावित विधेयक ने कलेक्टर और सरकारी प्रशासन को मनमाने अधिकार दे दिए हैं। आज जब कलेक्टर के आदेश से मुसलमानों के घरों पर बुलडोज़र चल रहे हैं, तो फिर वक़्फ़ संपत्तियों के मामले में उनके रवैये पर कैसे भरोसा किया जा सकता है?
प्रस्तावित विधेयक में वक़्फ़ अधिनियम 1995 के सेक्शन 40 को पूरी तरह से हटा दिया गया है। यह सेक्शन वक़्फ़ बोर्ड के अधिकार क्षेत्र, सीमाओं और अधिकारों को तय करता है, जिसके तहत वक्फ़ पंजीकरण, वक़्फ़ संपत्ति की स्थिति आदि तय की जाती है। अब ये सभी अधिकार कलेक्टर को सौंप दिए गए हैं। इसी तरह सर्वे कमिश्नर को नामांकित करने के वक़्फ़ बोर्ड के अधिकार को भी समाप्त कर दिया गया है। इस जिम्मेदारी को भी कलेक्टर के हवाले कर दिया गया है।
प्रस्तावित विधेयक में वक्फ़ के रूप में इस्तेमाल की गई संपत्ति को हटा दिया गया है। इस्लामी कानून में इसका एक महत्वपूर्ण स्थान है, जिसे वक़्फ़ अधिनियम 1995 में भी महत्व दिया गया है, जिसमें कहा गया है कि लंबे समय तक वक्फ़ के रूप में इस्तेमाल की गई जगह (मस्जिद, दरगाह या कब्रिस्तान) भी वक़्फ़ मानी जाएगी, भले ही वह वक्फ़ के रूप में पंजीकृत न हो। इसे हटाना न केवल वक्फ़ के सिद्धांत का उल्लंघन होगा बल्कि यह सांप्रदायिक तत्वों को वक्फ़ संपत्तियों पर कब्ज़ा करने का एक हथियार दे देगा। इस तरह मस्जिदें, मदरसे, दरगाहें और कब्रिस्तान, चाहे वे सदियों से उपयोग में रहे हों, लेकिन अगर देश के राजस्व रिकॉर्ड में उनका पंजीकरण नहीं है, तो उन पर मुकदमे, विवाद और अवैध क़ब्ज़े का रास्ता साफ़ हो जाएगा।
प्रस्तावित विधेयक में वक़्फ़ देने वाले के लिए एक हास्यास्पद शर्त लगाई गई है कि वह कम से कम पिछले पांच वर्षों से इस्लाम का पालन कर रहा हो। यह प्रस्ताव मौलिक नैतिकता और भारतीय संविधान की आत्मा के भी ख़िलाफ़ है। मौजूदा अधिनियम में कहा गया है कि किसी भी व्यक्ति द्वारा किसी भी चल या अचल संपत्ति को स्थायी रूप से किसी ऐसे उद्देश्य के लिए दान कर देना, जिसे मुस्लिम शरीया कानून के तहत धार्मिक या परोपकारी कार्य माना गया हो। फिर यह सवाल भी पैदा होता है कि कौन तय करेगा कि कोई व्यक्ति इस्लाम का पालन कर रहा है या नहीं?
जहां एक ओर प्रस्तावित विधेयक में ग़ैर-मुस्लिमों को सदस्य बनाने का प्रस्ताव है, वहीं यह विधेयक गैर- मुस्लिमों द्वारा अपनी किसी संपत्ति को वक़्फ़ करने पर प्रतिबंध लगाता है। यहां यह स्पष्ट करना भी ज़रूरी है कि वक़्फ़ संपत्तियां सरकार की संपत्ति नहीं हैं, बल्कि ये मुस्लिमों की अपनी व्यक्तिगत संपत्तियां हैं, जिन्हें उन्होंने धार्मिक और परोपकारी कार्यों के लिए अर्पित किया है। वक़्फ़ बोर्ड और मुतवल्ली का रोल सिर्फ इन्हें संचालित करने का होता है।
जमाअ़त ए इस्लामी हिंद इस विधेयक को पूरी तरह से ख़ारिज करती हैं, जो वक़्फ़ संपत्तियों को तबाह और बर्बाद करने और उन पर कब्जा करने का रास्ता साफ करने के लिए लाया गया है, और सरकार से मांग करते हैं कि वह इसे तुरंत वापस ले।
हम एनडीए में शामिल धर्मनिरपेक्ष राजनीतिक पार्टियों और विपक्ष की सभी पार्टियों से भी मांग करते हैं कि वे इस विधेयक को किसी भी क़ीमत पर संसद से पारित न होने दें।
हम यह भी स्पष्ट करना चाहते हैं कि अगर वक़्फ़ संपत्तियों को नष्ट करने और उन पर कब्ज़ा करने का रास्ता साफ़ करने वाला यह विधेयक संसद में पेश किया गया, तो जमाअ़त ए इस्लामी हिंद मुसलमानों, अन्य अल्पसंख्यकों और सभी न्यायप्रिय लोगों के साथ इसके खिलाफ़ कानूनी और लोकतांत्रिक तरीक़े अपनाएंगे । प्रेस कॉन्फ्रेंस के
अब्दुल वहाब पारेख (संस्थापक कार्यकारी सदस्य, ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड नई दिल्ली , अब्दुल रऊफ़ शेख़ सेवानिवृत्त उप संभागीय आयुक्त,पूर्व सीईओ, महाराष्ट्र राज्य वक़्फ़ बोर्ड ), कार्यक्रम का परिचय मोहम्मद उमर खान (नगर सचिव) जेआईएच नागपुर, ने दिया और प्रदर्शन मीडिया सचिव डॉ. एम.ए. रशीद ने किया ।