अमेरिकी मीडिया में विद्रोह, ट्रंप या हैरिस

– मीडिया के भीतर से ही चुनौती के स्वर उभरने लगे

नई दिल्ली :- क्या किसी अखबार को चुनाव में किसी भी उम्मीदवार का सर्मािन करना चाहिएं. अमेरिकी मीडिया में तूफान मच गया है. मीडिया के भीतर से ही चनौती के स्वर उभरने लगे है. बहुत बहस हो रही है कि, पत्रकारिता क्या है? भारत में गोदी मीडिया के करण जनता और लोकतत्र को कितना नुकसान पहुंचा है. यह खुश होनेवाली बात नही है कि अमेरिका में भी वही हो रहा है. बल्कि आपको चिंतित होना चाहिएं की सूचनाओं पर कंट्रोल के गुलाामी का नया दौर आ गया है. अमेरिका का एक अखबार है वाशिंग्अन पोस्ट. इसमें राष्ट्रपति चुनाव में किसी भी उम्मीदवार का समर्थन करने से इनकार कर दिया है. इसी बात से नाराज होकर वाश्ंिग्टन पोस्ट के दो लाख सबक्राइबर्स ने खुद को अखबार से अलग कर दिया है. लोग अपना सबस्क्रिप्शन प्लान कैंसल करने के लिए ट्विटर पर उनके फैसले को लेकर कई तरह के सवाल उठ रहे है. क्या टं्रप जितने की संभावना बढ़ गई है. इसलिए अखबार ने किसी का समर्थन करने से इनकार कर दिया है. अगर ट्रंप यह कहे की विपक्ष के खिलाफ अमेरिकी नागरिकों के खिलाफ या सेना का इस्तेमाल करेंगे क्या? तब भी किसी अखबार को उनका विरोध नहीं करना चाहिएं क्या? अखबार ने न्युट्रल रहने का ढोंग रचा है. यह सवाल अब उठऩे लगा है. इन चर्चाओं से भारत के थर्ड क्लास मोदी मीडिया को खुश होने की कतई जरूरत नही कि वह गंध में है जो दुसरे कीचड़ में है. दुनिया में कही भी लोकतंत्र की दुर्गती किसी दुसरे लोकतांत्रिक देश के लिए भी बुरी खबर होती है. लेकिन इसके बारे में जान लेना जरूरी है कि अमेरिका में अखबार किसी को क्यों समर्थन देते है. अमेरिका में हमेशा से यह प्रथा रही है कि राष्ट्रपति को लेकर सानीय चुनाव में उमीदवारों का समर्थन किया जाता है. बहुत से मीडिया संस्थान किसी को समर्थन नही भी देते है है. अमेरिका में ापोर्ट समर्थन के लिए अंग्रेजी का शब्द ‘एंडोर्समेंट’ का इस्तेमाल किया जाता है. अमेरिका में पत्रकारिता में न्यूज रिपोटिंग और संपादकीय लेखन अलग-अलग काम माना जाता है और एक दुसरे से अलग-अलग रखा जाता है. न्यूज स्टॉफ का काम कम होता है. 9ाबर की बॉब्जेक्टिविटी बरकरार रखते हुए रोज की खबरों का कवरेज देखना और ओपिनियन स्टॉफ का काम होता है. घटनाओं, व्यक्तियों, नीतियों पर अखबार की ओर से अपना मत जाहिर करना अमेरिकी मीडिया में यह बंटवारा लंबे समय से हो रहा है. और इसका सख्ती से पालन भी किया गया. लेकिन अब तो न्युज रिपोर्टिंग और ओपिििनयन दोनों की जगह काफी कुछ बदल गया है. भारत के गोदी मीडिया जैसा नही नह है कि विपक्ष का कवरेज बंद हो जाएगा या सरकार की आलोचना भी बंद हो जाएगी. एकदम से पार्टी कार्यकर्ता की तरह अखबार या चनल प्रचार शुरू कर देगा. जैसा गोदी मीडिया करता है. हालांकि गोदी मीडिया का यह तत्व अब अमेरिका के अखबारों और चैनलों में भी पाया जा रहा है. वहां भी अब चनल और अखबार खुलकर एक तरफ हो रहे है. ऐसा होना किसी भी लेाकतंत्र के लिए अच्छी खबर नही है. अमेरिका में इस बात को लेकर कई अध्ययन हुए है कि जब अखबार और चैनल किसी उम्मीदवार को एंडोर्स करता है, समर्थन करता है तो क्या होता है. अध्यययन में पाया गया है कि उसकी हार या जीत पर कोई असर नहीं पड़ता तब सवाल उठ़ता है कि क्या किसी उम्मीदवार का समर्थन करनेवाला अखबार स्वतंत्र और निष्पक्ष रह पाता है तो अखबार किसीका समर्थन नही करता है. क्या वह ज्यादा स्वतंत्र और निष्पक्ष माना जाएगा.

(क्रमश.)

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