नई संसद के उद्घाटन का विपक्ष द्वारा बहिष्कार लोकतांत्रिक विरोध का एक रूप है

सार्वजनिक जीवन में प्रतीकों का बहुत महत्व होता है। प्रतीकों का चुनाव और प्रक्षेपण विचारधारा, संस्कृति, इतिहास, विश्वदृष्टि आदि-इत्यादि को दर्शाता है। 75 साल पहले संविधान सभा के ऐतिहासिक मध्यरात्रि सत्र में, एक औपचारिक समारोह में, स्वतंत्रता सेनानी और संविधान की 15 महिला सदस्यों में से एक हंसा मेहता द्वारा विधानमंडल के अध्यक्ष राजेंद्र प्रसाद को राष्ट्रीय ध्वज सौंपा गया था। तब उन्होंने कहा था, “यह उचित है कि यह पहला झंडा, जो इस प्रतिष्ठित सदन के ऊपर फहरेगा, भारत की महिलाओं की ओर से एक उपहार होना चाहिए …।” यह तब और तब से लेकर अब तक के सभी वर्षों के लिए, ब्रिटिश शासन से भारत को मुक्त करने के गौरवशाली संघर्ष में भारत की महिलाओं द्वारा निभाई गई भूमिका की मान्यता का प्रतीक था।

लेकिन आज उस ऐतिहासिक घटना पर नजर डालें, तो इसका एक और स्पष्ट महत्व नजर आता है। यह भारत के पहले प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू नहीं, बल्कि यह स्वतंत्र भारत की विधानमंडल के पहले अध्यक्ष राजेंद्र प्रसाद थे, जिन्होंने झंडा प्राप्त किया। यह भारत के संविधान को अपनाने से पहले और भारत के राष्ट्रपति के पद की स्थापना से पहले था। सभा के स्वीकृत नेता नेहरू के लिए ध्वज प्राप्त न करने का कोई कारण नहीं था, क्योंकि कोई निर्धारित नियम नहीं थे। लेकिन विधानमंडल के अध्यक्ष के सम्मान के औचित्य और मानदंडों ने निर्धारित किया होगा कि झंडा किसने प्राप्त किया।

1947 में बिना औपचारिक संविधान के भी सभा के अध्यक्ष को मुखिया के रूप में स्वीकार कर लिया गया। आज संविधान के बावजूद, राष्ट्रपति की इस भूमिका और स्थिति को प्रधान मंत्री द्वारा हड़पने की कोशिश की जा रही है। नए संसद भवन का उद्घाटन राष्ट्रपति के बजाय स्वयं करने का निर्णय घोर अवहेलना और वास्तव में संवैधानिक मर्यादाओं की अवमानना का प्रतीक है। अनुच्छेद 79 में भारत के संविधान में स्पष्ट रूप से कहा गया है, “संघ के लिए एक संसद होगी, जिसमें राष्ट्रपति और दो सदन शामिल होंगे, जिन्हें क्रमशः राज्यसभा और लोकसभा के रूप में जाना जाएगा।” स्पष्ट रूप से, एक नए संसद भवन के उद्घाटन जैसे प्रतीकात्मक अवसर के केंद्र में राष्ट्रपति होना चाहिए। यह तब और भी अधिक प्रासंगिक है, क्योंकि अध्यक्ष एक आदिवासी समुदाय के सदस्य और एक महिला के रूप में सामाजिक समावेश का प्रतीक है। सामाजिक संवेदनशीलता के आवरण का दावा करने के लिए प्रधानमंत्री द्वारा बार-बार इसका उपयोग किया गया है, जिसे अब इतनी आसानी से खारिज कर दिया गया है। हो सकता है कि राष्ट्रपति इस मुद्दे पर बहुत नरम हों, लेकिन विपक्ष ऐसा करने के लिए और 19 विपक्षी दलों की संयुक्त घोषणा के साथ पालन करने के लिए पूरी तरह से प्रतिबद्ध है कि वे समारोह का बहिष्कार करेंगे।

इस निर्णय को तू-तू, मैं-मैं की बहस के रूप में नहीं लिया जाना चाहिए, जो भारत के वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य की एक सामान्य विशेषता बन गई है। यह भारत के राष्ट्रपति के अपमान के खिलाफ एक लोकतांत्रिक विरोध है, संवैधानिक मर्यादाओं के घोर उल्लंघन के खिलाफ और प्रधान मंत्री द्वारा भारत के राष्ट्रपति की भूमिका को हड़पने के खिलाफ भी विरोध है। एनडीए, जिसकी शायद ही कभी बैठक होती है, को एक बयान पर हस्ताक्षर करने के लिए गोलबंद किया गया है, जो इस सवाल का जवाब देने से बचता है: पीएम ही क्यों और राष्ट्रपति क्यों नहीं? विपक्ष के खिलाफ गाली-गलौज के सामान्य कोरस के साथ आलोचना का मुकाबला करने के लिए उनके सहयोगी अपेक्षित रूप से कूद पड़े हैं। एक मंत्री ने पूर्व प्रधानमंत्रियों द्वारा संसदीय एनेक्सी और पुस्तकालय के उद्घाटन की तुलना “यदि वे ऐसा कर सकते हैं, तो आप अभी क्यों आपत्ति कर रहे हैं” के साथ करना उचित समझा है, जबकि “लोकतंत्र के मंदिर” को एक पुस्तकालय में घटाना खुद संसद के प्रति अवमानना का एक संकेत है, और आगे असमर्थनीय का समर्थन करने की उनकी असहाय स्थिति को रेखांकित करता है।

यह कोई रहस्य नहीं है कि भाजपा अपने विभिन्न अवतारों में राष्ट्रपति प्रणाली की सरकार की समर्थक रही है। अनिवार्य रूप से, ऐसी व्यवस्था में, राष्ट्रपति राज्य के प्रमुख और कार्यपालिका के प्रमुख दोनों होते हैं, जबकि विधायिका के निर्णयों पर एक महत्वपूर्ण वीटो रखते हुए, किसी व्यक्ति को अधिभावी अधिकार देते हैं। जबकि दुनिया भर के देशों में शासन की इस शैली और इसके विभिन्न मॉडलों के पक्ष और विपक्ष पर बहस हो सकती है, भारत में समकालीन राजनीतिक स्थिति में, यह गुरु-शिष्य तथा राजा-प्रजा के प्रतिगामी मॉडल के साथ अच्छी तरह से फिट बैठता है, जो उच्च अधिकारी के प्रति निर्विवाद आज्ञाकारिता पर आधारित शासन का मॉडल है और जो संघ परिवार के दिल और दिमाग में बसा हुआ है।

जब संसदीय लोकतंत्र और एक संघीय ढांचे के साथ एक संप्रभु, लोकतांत्रिक गणराज्य की स्थापना करने वाले भारत के संविधान को अपनाया गया था, तो यह आरएसएस ही था, जो इस आधार पर इसका सबसे बड़ा आलोचक था कि यह संविधान पर्याप्त रूप से “भारतीय” नहीं है, जैसा कि मनुस्मृति में इसे परिभाषित किया गया है।

मोदी शासन के अंतिम दशक में केंद्र सरकार के हाथों में और इस सरकार के भीतर प्रधान मंत्री के हाथों में सत्ता का एक अभूतपूर्व केंद्रीकरण देखा जा रहा है। राज्य सरकारों के अधिकारों का हनन किया जा रहा है। संसद चाटुकारिता के एक शर्मनाक अखाड़े में सिमट कर रह गई है, जहां प्रधानमंत्री के बारे में कुछ भी बोलने पर सत्ता पक्ष द्वारा विपक्ष को अशोभनीय कर्कश गालियां देना एक आदर्श बन गया है। जनता के 45 लाख करोड़ रुपये का बजट 10 मिनट के भीतर पारित कर दिया जाता है, क्योंकि सत्ता पक्ष के सांसदों को कार्यवाही बाधित करने का आदेश दिया गया है। किसी भी विधेयक की वैधता, छानबीन और सलाह-मशविरा के लिए संसद द्वारा हमेशा अपनाए-परखे गए तंत्र, जैसे संसदीय कमेटियों के गठन, की प्रक्रिया को लगभग खत्म कर दिया गया है। बहुत से विधेयकों को धोखाधड़ीपूर्ण तरीके से धन विधेयक के रूप में परिभाषित करके राज्य सभा की भूमिका को कमजोर कर दिया गया है, ताकि राज्य सभा को, जहां सरकार के पास बिल्कुल भी बहुमत नहीं था या बहुत कमजोर बहुमत था, वोट के अधिकार से वंचित किया जा सके। शासन करने की अध्यक्षीय प्रणाली के नए भारत के संस्करण में, संसदीय बहुमत का इस्तेमाल एक बुलडोज़र के रूप में निरंकुशता को गढ़ने के लिए किया जा रहा है।

नए संसद भवन के उद्घाटन के अवसर पर प्रधान मंत्री द्वारा भारतीय गणतंत्र के वास्तविक राष्ट्रपति को प्रतिस्थापित करना, एक व्यक्ति के अहंकार से अधिक का प्रतीक बन सकता है।

(लेखिका सीपीआई(एम) पोलित ब्यूरो की सदस्य हैं। अनुवादक छत्तीसगढ़ किसान सभा के अध्यक्ष हैं।)

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