व्यंग्य -नेता चाहिए नेता…..

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चुनाव का बिगुल बज चुका है, अब हर तरफ बस एक ही आवाज “नेता चाहिए नेता” गूंज रही है। पार्टी को उम्मीदवार के रूप में नेता चाहिए… जनता को अपने प्रतिनिधि के रूप में! सरकार बनाने के लिए विधायक, सांसद के रूप में। यानी नेता की डिमांड इस मौसम में बढ़ जाती है। इतना कम था जो हर गांव, गली, शहर, घर में भी नेता बनने के लिए नेताओं की फसल उग गई है….बस चुनाव की मंडी में दाम लगने बाकी है।

नेता बनने गांव से लेकर शहर तक हर गली में सड़कों पर काफिला चल पड़ा है। हर चेहरे पर उम्मीद है, और हर कान में वही पुरानी परिचित आवाज़— “नेता चाहिए नेता।” जनता का भी यही हाल है, उन्हें भी एक ऐसा नेता चाहिए, जो चुनाव के बाद उसी तरह गायब हो जाए, जैसे गर्मियों में बारिश की पहली बूंदे सूख जाती हैं।

अब नेता जी आते हैं। पहले लम्बी गाड़ी में, फिर गांव गली में पैदल चलकर, जैसे जनता का दर्द उनके दिल में हो। गाड़ी से उतरते ही अपने चमचों के साथ गली-गली घूमते हैं। सबसे पहले एक वृद्ध महिला को देखते हैं और पूछते हैं, “मां जी, क्या हाल है?” महिला की आंखों में आंसू आ जाते हैं, वह जवाब देती हैं, “बेटा, सड़क तो ठीक करवा दो, कच्ची सड़क से अब कमर टूट जाती है।” नेता जी गंभीरता से सिर हिलाते हैं और आश्वासन देते हैं, “आप चिंता मत कीजिए, सड़क क्या, पूरे गांव को चमका देंगे।” और फिर एक दो फोटो खिंचवा कर आगे बढ़ जाते हैं।

नेता का चुनावी दौरा जारी रहता है। हर चौराहे पर एक नया वादा, हर नुक्कड़ पर एक नया सपना। हां, वो सपने जो चुनावी नतीजे आते ही गायब हो जाते हैं। “नेता चाहिए नेता,” अब तो मानो ये नारा ही बन गया है। जनता का हाल यह है कि वो जानती है कि जो वादे किए जा रहे हैं, उनमें से आधे भी पूरे नहीं होंगे, लेकिन फिर भी हर बार उम्मीद के सहारे वोट दे देती है। आखिरकार, लोकतंत्र में नेता तो चाहिए ही।

नेता का भाषण भी देखिए। “हमने यह किया, हमने वह किया,” उनके हिसाब से तो उन्होंने आसमान से तारे भी तोड़कर जनता के कदमों में रख दिए हैं। जबकि असलियत यह है कि जनता अभी भी बिजली, पानी, महंगाई और सड़क के लिए संघर्ष कर रही है। दंगो से अलग परेशान है। इस बार तो खिरातो की बारिश के गुण गए जायेंगे…विरोधी इस खैरात को कम बताकर और अधिक देने का वादा चिपका जायेंगे। मगर भाषणों की मिठास ऐसी होती है कि कुछ पल के लिए जनता भी सपनों की दुनिया में खो जाती है।

“नेता चाहिए नेता,” और नेता भी वह जो चुनाव के बाद पांच साल के लिए गायब हो जाए। वैसे जनता का भी क्या दोष, आखिर उसे विकल्प भी क्या मिलता है? हर चुनाव में वही चेहरे, वही वादे, वही झूठ। बस अलग-अलग पार्टियों के झंडों के रंग बदल जाते हैं।

और जब चुनाव खत्म हो जाते हैं, तो नेता जी फिर से अपनी एसी गाड़ी में बैठकर गायब हो जाते हैं। जनता के पास फिर से वही पुरानी समस्याएं रह जाती है।

इस पूरे तमाशे का सबसे दिलचस्प हिस्सा यह है कि नेता खुद भी जानते हैं कि जनता उनके झूठे वादों को पहचानती है। फिर भी, “नेता चाहिए नेता” की पुकार हर बार गूंजती है, क्योंकि जनता को उम्मीद है कि शायद इस बार कुछ बदल जाए।

डॉ. प्रवीण डबली,वरिष्ठ पत्रकार

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