नशा को भी फीका करती हैं ‘वो’ ….

 – भूमिका के अर्थ के साथ कर रही न्याय 
एक सक्षम घर में बेहद खूबसूरती ने जन्म ली,नाजों से पली.इसलिए मिजाज भी इनके बिंदास हैं.जिसे कई नामों से जाना जाता हैं उनमें से एक नाम भूमिका भी हैं.
नाम रखने वाले ने तब उतना नहीं सोचा होगा कि भूमिका नाम क्यों रख रहे हैं.
यह हमेशा चाहने वालों की भीड़ में रही,चलती रही.बेशक क्यूंकि भूमिका एक सर्वगुण संपन्न युवती हैं इसलिए इनके चाहने वालों की भीड़ में पुरुष वर्ग की तादाद अनगिनत हैं.
इसका कहीं से निकलना,किसी जैसे-समारोह में पहुंचना,जबतक नज़र से ओझल न होने तक, एक अजीब सा वातावरण निर्माण करता है,अर्थात समारोह/स्थल का रुख बदल जाता।
हर कोई करीब आना चाहता…नज़र मिलाना चाहता…….टच करना चाहता….. रु-ब रु होना चाहता। अर्थात भूमिका का सार्वजानिक जगह पर दिखना ,आसपास का तापमान बढ़ा देता हैं,अर्थात भूमिका का नशा मैखाने के नशे को भी फीका कर देती हैं फिर कोई भी हो.
इन सब के बीच से गुजरते हुए भले-बुरो को सँभालने में अहम् भूमिका,भूमिका ने निभाई।इस दौरान अपनों ने सपना तोडा,इसका फायदा भी कइयों ने उठाया पर सबको बिना किसी व्यवधान के संघर्ष करती रही भूमिका।
दरअसल ‘तो जसा दिसते,तसा नसते’ इस कहावत का अर्थ यह है कि गांव की एक अति खूबसूरत लड़की के सुनहरे सपने आज भी आँखों में तैर रहे,क्यूंकि उनके भोलेपन/अपनापन/सब को लेकर चलने की सोच/दुःख मन ही मन में रखना जैसी आदतों ने उसका नुकसान बड़ा किया।सपने टूटने/टूटे सपने को जोड़ने के बहाने लूटने जैसी मार भी झेली।इन सबके बावजूद बिंदास रही,बिंदास रहने का दिखावा किया तो सब वहम में रह गए,किसी को उसके अंदर का आंसू नज़र नहीं आया.तब उठाये गए कदम के अनुरूप आज न होने से भीतर से दुखी हैं,तो इस कदम से हुए दुखी से आज भी नजर नहीं मिला पा रही.
समय कटता जा रहा था,दुखी वातावरण तो ख़ुशी चेहरे पर ला कर,पर अच्छे दिन कब आएंगे ,कब संघर्ष का बादल छंटेगा,इसी सोच में जी रही थी,बेहद अति सुन्दर भूमिका। ऐसा लग रहा था मानों कमल के चारों और कीचड़ हैं,अर्थात संघर्ष/आफत/दिक्कत/शोषण/समाज के मजधार के बीच हंस कर/बिंदास रह कर खुशनुमा वातावरण तो बना रहीलेकिन इस ‘कमल’ का खुशबु नहीं रह गया था,सिर्फ दिख सुन्दर रहा था.
 कुछ समय पूर्व अचानक उसे कोई ऐसा मिला,जिसे किस श्रेणी में रखा जाए,यह आम से खास सभी के लिए आजतक संदिग्ध अवस्था में हैं,उसी से धीरे-धीरे आपसी विश्वास बना लेकिन पहले बड़ा डरी,इतना की घर छोड़ कर भाग गई,अपना सही अत-पता न बताने लगी,नौबत तो ऐसी आ गई थी कि जितनी स्पीड से दोस्ती हुई थी,उतनी ही स्पीड से टूटने के कगार पर आ गई थी.
फिर किसी नेक के सलाह पर उसकी नेक दिली से ओत-प्रोत होकर न सिर्फ लौटी बल्कि धीरे-धीरे बातों ही बातों में  अपना दुःख-दर्द,सुखी पल,अनुभव,टूटे सपने और चाहत का खुल कर उन्हें बताती रहती हैं.
जिंदगी के सारे शौक उनके साथ पूरा करना चाहती है,लेकिन जैसे जैसे समय मिलेगा तब…. ऐसा घर कर गया वो बंदा कि उसी से तगड़ी नफरत/भीषण युद्ध/सिरे से नज़रअंदाजगी/अधिकार/हक्क जताती रहती हैं और तो और उसके व्यस्त रहने पर संपर्क न होने पर असमंजस में पड़ने के साथ ही साथ काफी परेशां हो जाती यह सोच कर कही…..उसकी जगह कोई और तो नहीं ले रहा अर्थात समझ तो यह बन रही कि ज़माने को देख खुलेआम मिलने से क़तराती लेकिन अंदर अंदर मिलने/देखने/बात करने के लिए तड़पती रहती।
क्यूंकि वह उससे बना रहे,निकट रहे इसलिए समय समय पर ऐसे नायब सुझाव देती रहती है,जिसे भूल पाना असंभव हैं.
अंततः भूमिका को उसके टूटे/बिखरे/अधूरे सपनों को ऊँची सकारात्मक उड़ान उसी बन्दे से मिले यहीं आखिरी हो,जिससे हर पल उसे ख़ुशी और सुकन मिलते …….
इसने अपने नाम भूमिका के अर्थ को आजतक साकार कर रही,संभवतः अंत तक करती रहेगी.
 दिनेश दमाहे

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